लोक लाज और समाज का सामना करना मुश्किल होगा, सर्वोच्च न्यायालय पहुंची अविवाहित एक मां जब मे जज बोले माफ करे – क्या है वजह पढ़ें पूरी खबर

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एम सलीम खान ब्यूरो

दिल्ली की सर्वोच्च अदालत में एक 20 वर्षीय अविवाहित महिला ने कोर्ट के दरवाजे पर दस्तक देते हुए करीब 27 माह से अधिक की गर्भावस्था को सम्पात करने की याचिका दायर की थी, खंडपीठ ने इस मामले पर विचार करने और सुनवाई करने से फौरी तौर पर साफ इंकार कर दिया, अदालत ने कहा कि गर्भ में पल रहे भ्रूण को भी जीने दुनिया में आने का मौलिक अधिकार है, न्यायमूर्ति बी आर गव ई की अध्यक्षता वाली खंडपीठ ने महिला की याचिका पर सुनवाई करते हुए यह आदेश दिया कि महिला ने दिल्ली हाईकोर्ट के तीन म ई के आदेश को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी थी, इससे पहले उच्च न्यायालय ने भी उन्हें राहत नहीं दी थी।

तीन जजों की खंडपीठ ने न्यायमूर्ति एस वी एन भट्टी और न्यायमूर्ति मेहता भी शामिल थे, उन्होंने याचिकाकर्ता महिला के अधिवक्ता से कहा *हम कानून के विपरित कोई आदेश पारित नहीं कर सकते* खंडपीठ ने पूछा गर्भ में पल रहे बच्चे को भी जीने का मौलिक अधिकार है, उसे भी दुनिया में आंखें खोलने का अधिकार है,आप इस बारे में क्या कहते हैं? महिला के अधिवक्ता ने कहा कि मेडिकल टर्मिनेशन आफ प्रेग्नेंसी एक्ट केवल मां के बारे में बात कर रहे हैं, उन्होंने कहा यह मा के लिए बना है।

खंडपीठ ने कहा हमें माफ करे

खंडपीठ ने कहा गर्भावस्था की अवधि सीमा अब सात महीने से अधिक हो गई है, बच्चे के जीवित रहने के अधिकार के बारे में क्या? आप इसे कैसे संबोधित करते हैं? वकील ने कहा कि भ्रूण गर्भ में है और जब तक बच्चे की पैदाइश नहीं हो जाएं यह मां का अधिकार है, उन्होंने कहा याचिकाकर्ता इस स्तर पर गंभीर दर्दनाक स्थिति में है,वह बाहर भी नहीं आ सकती,वे एन ई ई टी परीक्षा के लिए कक्षाएं ले रही है,वह अत्यधिक दर्दनाक स्थिति में है, यह इस स्तर पर समाज का सामना नहीं कर सकती, वकील ने दलील दी कि उसकी मानसिक और शारीरिक भलाई पर गौर किया जाना चाहिए, खंडपीठ ने कहा हमें माफ करे ‌।


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