पत्रकार दीपक शर्मा की कलम से खो गई वो चिठ्ठियां

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*खो गईं वो चिठ्ठियाँ जिसमें “लिखने के सलीके” छुपे होते थे, “कुशलता” की कामना से शुरू होते थे। बडों के “चरण स्पर्श” पर खत्म होते थे…!!*

*“और बीच में लिखी होती थी “जिंदगी”*

*नन्हें के आने की “खबर”*

*“माँ” की तबियत का दर्द*

*और पैसे भेजने का “अनुनय”*

*“फसलों” के खराब होने की वजह…!!*

*कितना कुछ सिमट जाता था एक*

*“नीले से कागज में”…*

*जिसे नवयौवना भाग कर “सीने” से लगाती*

और *“अकेले” में आंखो से आंसू बहाती !*

*“माँ” की आस थी “पिता” का संबल थी*

*बच्चों का भविष्य थी और*

*गाँव का गौरव थी ये “चिठ्ठियां”*

*“डाकिया चिठ्ठी” लायेगा कोई बाँच कर सुनायेगा*

*देख-देख चिठ्ठी को कई-कई बार छू कर चिठ्ठी को अनपढ भी “एहसासों” को पढ़ लेते थे…!!*

*अब तो “स्क्रीन” पर अंगूठा दौडता हैं*

और *अक्सर ही दिल तोड़ता है*

*“मोबाइल” का स्पेस भर जाए तो*

*सब कुछ दो मिनट में “डिलीट” होता है…*

*सब कुछ “सिमट” गया है 6 इंच में*

*जैसे “मकान” सिमट गए फ्लैटों में*

*जज्बात सिमट गए “मैसेजों” में*

*“चूल्हे” सिमट गए गैसों में*

और

*इंसान सिमट गए पैसों में*


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